हम उनकी नहीं सुनते
जो मृगछौने की खाल पर पालथी मारे हुए
हमें अहिंसा का पाठ पढ़ाते हैं,
हम उनकी नहीं सुनते
जो चीखते आदमी का हक छीन कर
बेजुबान पत्थर पर पुआ-पुड़ी चढ़ाते हैं।
लोथिल मुस्कान और खून-खून आंखें
हम नहीं सुनते
उस आदमखोर का बयान-
जिसकी भाषा मुंहजोरी की है,
संस्कृति तिजोरी की है,
हू-ब-हू दरिंदे-सा
लाशों पर आता है
लाशों पर जाता है
आदमी की दुनिया में
आदमी को खाता है...हम उसकी नहीं सुनते।
और सुनो! तुम सब सुनो!!
हम जीने के लिए बर्फ की तराई भर आग बो रहे हैं
हर खूंफरोश के फावड़ों-मशीनों पर फैले हुए हाथ
अब मुट्ठियों में तब्दील हो रहे हैं,
और ये ऐसी मुहूरत है
जब कलम को बंदूक की
और बंदूक को कलम की सख्त जरूरत है।
जब अंबर झूम के नाचेगा जब धरती नगमे गाएगी
Saturday, March 1, 2008
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